नई दिल्ली, 1 मई 2025 – भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक और बहुप्रतीक्षित निर्णय लेते हुए घोषणा की है कि आगामी जनगणना में देश की जातीय संरचना से जुड़ी विस्तृत जानकारी को शामिल किया जाएगा। यह कदम 1931 के बाद पहली बार होगा जब जातिगत आंकड़े आधिकारिक रूप से इकट्ठा किए जाएंगे। सरकार का मानना है कि यह पहल नीति निर्माण, सामाजिक न्याय और संसाधनों के न्यायसंगत वितरण में मील का पत्थर साबित होगी।
भारत में जातिगत जनगणना क्यों है महत्वपूर्ण?
भारत में जाति न केवल सामाजिक पहचान का एक आधार है, बल्कि यह शिक्षा, रोजगार, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और आरक्षण जैसी नीतियों पर भी गहरा प्रभाव डालती है। हालांकि अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के आंकड़े हर जनगणना में जुटाए जाते रहे हैं, परंतु अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और सवर्ण जातियों की संख्यात्मक स्थिति की आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं रही है।
सरकार का बयान और नीति की दिशा
केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक बयान के अनुसार, 2025-26 में होने वाली जनगणना में “सभी नागरिकों से उनकी जाति के बारे में जानकारी मांगी जाएगी और उसे सुरक्षित व गोपनीय तरीके से रिकॉर्ड किया जाएगा।”
गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा, “हमारी सरकार का उद्देश्य समावेशी विकास है। जातिगत आंकड़े एक आवश्यक उपकरण होंगे जिससे हम यह सुनिश्चित कर सकें कि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय न हो और सभी को समान अवसर मिलें।”
आंकड़े क्यों ज़रूरी हैं सामाजिक विकास के लिए?
नीति निर्माण में कैसे मदद करेगा जातिगत डेटा?
जातिगत डेटा यह स्पष्ट करेगा कि कौन-से वर्ग आज भी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन से जूझ रहे हैं। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक सहायता से जुड़ी योजनाओं को बेहतर तरीके से डिजाइन किया जा सकेगा।
क्या OBC आरक्षण में होगा बदलाव?
वर्तमान में OBC को 27% आरक्षण प्राप्त है, लेकिन इसकी वैधता और विस्तार का सही आकलन संभव नहीं है क्योंकि वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। नए डेटा से यह तय करने में मदद मिलेगी कि आरक्षण की सीमा बढ़ानी चाहिए या नहीं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 1931 से 2025 तक का सफर
भारत में अंतिम बार जातिगत जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने इसे दोहराने से परहेज़ किया, यह मानते हुए कि इससे सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिल सकता है।
2011 में एक “सोशियो-इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस (SECC)” किया गया था, परंतु वह डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया। अब केंद्र सरकार का यह निर्णय उस अधूरे प्रयास को नया रूप देने की दिशा में है।
विपक्ष और समाजशास्त्रियों की राय
प्रियंका गांधी ने कहा, “हम लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रहे थे। यह सरकार की एक सकारात्मक पहल है, लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि डेटा का दुरुपयोग न हो।”
नीतीश कुमार ने इस कदम का स्वागत किया और कहा कि “सिर्फ आंकड़े होने से ही सुधार नहीं होता, उन पर काम भी करना होता है।”
प्रो. आनंद तिवारी का मानना है कि, “जातिगत आंकड़े भारत की सामाजिक सच्चाइयों को उजागर करेंगे।”
डेटा संग्रहण की चुनौतियाँ
गोपनीयता की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाएगी?
जातिगत जानकारी अत्यंत संवेदनशील होती है। इसका राजनीतिक या सामाजिक दुरुपयोग सामाजिक तनाव को जन्म दे सकता है। सरकार को इस डेटा की सुरक्षा के लिए स्पष्ट नीति बनानी होगी।
क्या इससे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा?
जातिगत आंकड़ों के आधार पर राजनीतिक दल अपनी रणनीतियां बदल सकते हैं, जिससे सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिल सकता है।
सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
जातिगत जनगणना समाज के विभिन्न वर्गों को उनके वास्तविक आंकड़ों के साथ सशक्त बनाने में सहायक हो सकती है। इससे दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की समस्याएं एक ठोस रूप में सामने आएंगी।
वहीं, सवर्ण वर्गों के लिए भी यह एक अवसर होगा कि वे अपने सामाजिक और आर्थिक स्थिति को आंकड़ों के माध्यम से स्पष्ट कर सकें।
डिजिटल तकनीक की भूमिका
सरकार ने संकेत दिया है कि इस बार की जनगणना पूर्ण रूप से डिजिटल माध्यम से की जाएगी। मोबाइल एप्स, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, और आधार कार्ड जैसी तकनीकों का प्रयोग कर जनगणना को तेज, सटीक और पारदर्शी बनाया जाएगा। जातिगत जनगणना का निर्णय भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में एक निर्णायक मोड़ है। इससे न केवल सरकार की योजनाओं को नई दिशा मिलेगी, बल्कि समाज को भी आत्मविश्लेषण का अवसर मिलेगा। यह आवश्यक है कि इस प्रक्रिया को निष्पक्ष, वैज्ञानिक और गोपनीय ढंग से संपन्न किया जाए ताकि इसका लाभ देश के हर नागरिक तक पहुंचे।






























